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Edition : 2024
Pages : 288
Weight : 380
Size : 21×14 cm
Language : Hindi
Binding : Hardcover
Size : 21×14 cm
द्रोणाचार्य (Dronacharya), जिन्हें महर्षि द्रोण के नाम से भी जाना जाता है, एक महान गुरु थे, जिन्होंने महाभारत के युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनकी कहानी और शिक्षा काफी प्रसिद्ध हैं। यह उनकी आत्मकथा नहीं है, बल्कि उनकी जन्म कथा और जीवन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को दर्शाती है।
क्या तुम्हें मालूम नहीं कि मैं तुम्हारा मित्र हूँ?” ” मित्र! हा-हा-हा!” वह जोर से हँसा, ” मित्रता! कैसी मित्रता? हमारी-तुम्हारी, राजा और रंक की मित्रता ही कैसी?” ” क्या बात करते हो, द्रुपद!” ” ठीक कहता हूँ द्रोण! तुम रह गए मूढ़-के- मूढ़! जानते नहीं हो, वय के साथ-साथ मित्रता भी पुरानी पड़ती है, धूमिल होती है और मिट जाती है । हो सकता है, कभी तुम हमारे मित्र रहे हो; पर अब समय की झंझा में तुम्हारी मित्रता उड़ चुकी है । ” ” हमारी मित्रता नहीं वरन् तुम्हारा विवेक उड़ चुका है । और वह भी समय की झंझा में नहीं वरन् तुम्हारे राजमद की झंझा में । पांडु रोगी को जैसे समस्त सृष्टि ही पीतवर्णी दिखाई देती है वैसे ही तुम्हारी मूढ़ता भी दूसरों को मूढ़ ही देखती है । ” ” देखती होगी । ” वह बीच में ही बोल उठा और मुसकराया, ” कहीं कोई दरिद्र किसी राजा को अपना सखा समझे, कोई कायर शूरवीर को अपना मित्र समझे तो मूढ़ नहीं तो और क्या समझा जाएगा?” ”…किंतु मूढ़ समझने की धृष्टता करनेवाले, द्रुपद! राजमद नेतेरी बुद्धि भ्रष्ट कर दी है । तू यह भी नहीं सोच पा रहा है कि तू किससे और कैसी बातें कर रहा है! तुझे अपनी कही हुई बातें भी शायद याद नहीं हैं । तू मेरे पिताजी के शिष्यत्व को तो भुला ही बैठा, अग्निवेश्य के आश्रम में मेरी सेवा भी तूने भुला दी । ” -इसी पुस्तक से.
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