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क्षीठरदुठरवट्ठीनुरदृहट्य अथवा कऊटिरैरठरब्बटररस्त्र श्रीमद्भराबद्गीता हिन्दू धर्मग्रन्धों में आत्मविद्या के गूढ़ तत्वों को स्पष्ट रीति से समझाने वाना ऐसा अद्भुत ग्रन्थ है, जिसकी तुलना का दूसरा कोई ग्रन्थ संसार- भर में नहीं मिल सकता । यदि काव्य की दृष्टि से भी इसकी परीक्षा को जाये, तो भी इसे उत्तम ग्रन्धों में ही गिना जायेगा । इस ग्रन्थरत्न में वैदिक धर्म का सार संग्रहीत किया गया है । यही वह ग्रन्थ है, जो लगभग ढाईं हजार वर्षों से ग्रमस्थास्वरूप सर्वमान्य रहा है। अर्जुन की कर्तव्यमूढ़ता की दूरदृकरने के लिए श्रीकृष्ण ने जो उपदेश दिया था, उसी के आधार पर व्यासजी ने उस रहस्य का प्रतिपादन श्रीमद्भगवद्गीता में किया है और उसी का मराठी में अनुवाद एवं टीका श्रीबालगंगाधर तिलक ने अपनी मण्डाले जेलयात्रा के दोरान ‘ श्रीमद्भराबदीतारहस्य अथवा कंर्महुँमृरैराशास्त्र’ नाम से की। यह आवश्यक है कि जिस कर्मयोराष्टग़स्त्र का विवेचन श्रीमद्भगवेदीता में किया पाया है, उसे प्रत्येक व्यक्ति सीखे और समझे । ब२र्म0येखाधिक्तार.ते मा फ्लेषु कदाचन । मा वठर्मपल्लहेतुर्मूमा ते संगौठरत्वकर्मपिंक्च ।। इस झ्वलोक में भराबान्ने अर्जुन की यही समझाया हैकि तुझे केवल कर्म करने का ही अधिकार है । कर्म-फल के विषय में तेरा कोई अधिकार नहीं है, यह ईश्वर पर अवलम्बित है । ” श्रीमद्भगबद्गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र है के अन्त में अनुवाद के साथ ही श्रीमद्भगवद्गीता के मूल शलोक भी है दिये राये हैं, ताकि संस्कृत जानने बाले गीता के झ्वलोकों का रसास्वादन कर सकें ।
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